
माँ ताउम्र हरपल, हरदिन अपने घर परिवार के लिए दिन-रात एक कर अपना सर्वस्व निछावर कर पूर्ण समर्पित भाव से अपने घर परिवार, बच्चों को समाज में एक पहचान देकर स्वयं की पहचान घर चारदीवारी में छिपा कर रखती है। निरंतर संघर्ष कर उफ तक नहीं करती, ऐसी माँ का एक दिन कैसा होगा! दौड़ती-भागती जिंदगी, घर-दफ्तर की जिम्मेदारी में जूझती-खीझती, पिसती-खपती अपने आप जब भी मैं कभी मायूस होती हूँ तो मुझे अपनी माँ के संघर्ष भरे दिन याद आ जाते हैं। ६० साल बीत जाने के बाद भी संघर्षों ने मां का पल्लू नहीं छोड़ा है और उन्होंने भी कभी उनसे मुंह नहीं मोड़ा। मुझे उनसे संबल और हरदम जूझने की प्रेरणा मिलती है। 15-16 साल की कच्ची उम्र में शहर आकर घर परिवार की जिम्मेदारी अपने नाजुक कन्धों पर उठाना कोई खेल तो नहीं रही होगा!
पिताजी नौकरी करते थे और उनकी आय सीमित थी, ऐसे में आर्थिक तंगी से घर परिवार चलाते हुए माँ ने उनके साथ दृढ़तापूर्वक आगे बढ़कर हम सभी भाई-बहनों को लिखाने-पढ़ाने का भार अपने कन्धों उठाया। घर की माली हालत को ठीक बनाये रखने के लिए गाय-बकरी पालकर पटरी बिठाई रखी। माँ ने कभी स्कूल में दाखिला नहीं लिया। लेकिन जिंदगी के मुश्किल हालातों के थपेड़ों से वह पढ़ाई-लिखाई का मोल समझ गई थी। वह स्कूल की किताबों की लिखावट भले भी नहीं बांच सकी लेकिन दिनभर की दौड़ धूप के बाद देर रात तक चुपचाप हमारे पास बैठकर किताबों में लिखे अक्षरों के भावार्थ समझने में लगी रहती। माँ ने लड़के-लड़की का भेद न करते हुए हम दो बहनों और दो भाईयों की पढाई-लिखाई से लेकर स्कूल भेजने, ले जाने की सारी जिम्मेदारी अपने ऊपर ली। शहर में रहकर माँ ने कभी किसी के आगे हाथ नहीं फैलाया। कभी लाचारी नहीं दिखाई। कभी हालातों से समझौता नहीं किया। हमको नियमित स्कूल भेजना माँ को बहुत अच्छा लगता था। वह भले ही कभी हमारी अंकतालिका नहीं पढ़ पायी लेकिन वे हमारे चेहरे के भावों से सबकुछ आसानी से पढ़ लेती थी। माँ ने हमारा भविष्य निर्धारित किया और उसी का नतीजा है कि आज हम सब भाई-बहन पढ़-लिखकर अपने घर-परिवार और सामाजिक जिम्मेदारियों को बहुत हद तक ठीक ढंग से निभा पाने में समर्थ हो पा रहे हैं।
माँ का संघर्ष जारी है। भोपाल गैस त्रासदी के बाद हुए 5 ऑपरेशन झेलकर वह कैंसर से पिछले 7 साल से हिम्मत और दिलेरी से लड़ रही है। पिताजी को गए हुए 5साल हुए हैं, उन्हें भी कैंसर था। इसका पता अंतिम समय में चल पाया। माँ खुद कैंसर से जूझते हुए हमारे लाख मना करने पर भी नहीं रुकी। वह हॉस्पिटल में खुद पिताजी की देख रेख में डटी रही। माँ ने उनकी सेवा में कोई कसर बाकी नहीं छोड़ी। हालांकि पिताजी ने कैंसर के आगे दो माह में ही हार मान ली। पर माँ बड़ी हिम्मत से इसका डटकर मुकाबला कर रही है। वह आज भी खुद घर परिवार की जिम्मेदारी से पीछे नहीं हटी है। मैं के साथ बीते पल अनमोल हैं। मेरा सौभाग्य है कि मेरी माँ हमेशा मेरे नजदीक ही रही है। शादी की बाद भी मैं उनके इतनी नजदीक हूँ कि मैं हर दिन उनके सामने होती हूँ। माँ घर से बाहर बहुत कम आ-जा पाती है। यह देख मुझे भी हरपल दुःख तो होता है। शायद यही नियति का खेल है।
माँ को देख आज हमें यही सीख मिलती है कि हालातों से मजबूर होकर जिंदगी से मुहं मोड़ना बुजदिली है, हालातों को अपने अनुकूल बनाना ही जीवन कौशल है। माँ अपने बच्चों के लिए कितना संघर्ष करती हैं, यह वह हर औरत समझती है जो माँ है।
…कविता रावत
पिताजी नौकरी करते थे और उनकी आय सीमित थी, ऐसे में आर्थिक तंगी से घर परिवार चलाते हुए माँ ने उनके साथ दृढ़तापूर्वक आगे बढ़कर हम सभी भाई-बहनों को लिखाने-पढ़ाने का भार अपने कन्धों उठाया। घर की माली हालत को ठीक बनाये रखने के लिए गाय-बकरी पालकर पटरी बिठाई रखी। माँ ने कभी स्कूल में दाखिला नहीं लिया। लेकिन जिंदगी के मुश्किल हालातों के थपेड़ों से वह पढ़ाई-लिखाई का मोल समझ गई थी। वह स्कूल की किताबों की लिखावट भले भी नहीं बांच सकी लेकिन दिनभर की दौड़ धूप के बाद देर रात तक चुपचाप हमारे पास बैठकर किताबों में लिखे अक्षरों के भावार्थ समझने में लगी रहती। माँ ने लड़के-लड़की का भेद न करते हुए हम दो बहनों और दो भाईयों की पढाई-लिखाई से लेकर स्कूल भेजने, ले जाने की सारी जिम्मेदारी अपने ऊपर ली। शहर में रहकर माँ ने कभी किसी के आगे हाथ नहीं फैलाया। कभी लाचारी नहीं दिखाई। कभी हालातों से समझौता नहीं किया। हमको नियमित स्कूल भेजना माँ को बहुत अच्छा लगता था। वह भले ही कभी हमारी अंकतालिका नहीं पढ़ पायी लेकिन वे हमारे चेहरे के भावों से सबकुछ आसानी से पढ़ लेती थी। माँ ने हमारा भविष्य निर्धारित किया और उसी का नतीजा है कि आज हम सब भाई-बहन पढ़-लिखकर अपने घर-परिवार और सामाजिक जिम्मेदारियों को बहुत हद तक ठीक ढंग से निभा पाने में समर्थ हो पा रहे हैं।
माँ का संघर्ष जारी है। भोपाल गैस त्रासदी के बाद हुए 5 ऑपरेशन झेलकर वह कैंसर से पिछले 7 साल से हिम्मत और दिलेरी से लड़ रही है। पिताजी को गए हुए 5साल हुए हैं, उन्हें भी कैंसर था। इसका पता अंतिम समय में चल पाया। माँ खुद कैंसर से जूझते हुए हमारे लाख मना करने पर भी नहीं रुकी। वह हॉस्पिटल में खुद पिताजी की देख रेख में डटी रही। माँ ने उनकी सेवा में कोई कसर बाकी नहीं छोड़ी। हालांकि पिताजी ने कैंसर के आगे दो माह में ही हार मान ली। पर माँ बड़ी हिम्मत से इसका डटकर मुकाबला कर रही है। वह आज भी खुद घर परिवार की जिम्मेदारी से पीछे नहीं हटी है। मैं के साथ बीते पल अनमोल हैं। मेरा सौभाग्य है कि मेरी माँ हमेशा मेरे नजदीक ही रही है। शादी की बाद भी मैं उनके इतनी नजदीक हूँ कि मैं हर दिन उनके सामने होती हूँ। माँ घर से बाहर बहुत कम आ-जा पाती है। यह देख मुझे भी हरपल दुःख तो होता है। शायद यही नियति का खेल है।
माँ को देख आज हमें यही सीख मिलती है कि हालातों से मजबूर होकर जिंदगी से मुहं मोड़ना बुजदिली है, हालातों को अपने अनुकूल बनाना ही जीवन कौशल है। माँ अपने बच्चों के लिए कितना संघर्ष करती हैं, यह वह हर औरत समझती है जो माँ है।
…कविता रावत